“मैं कब-कब पागल होता हूँ?

जब मन्दिर-मस्जिद जलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब जूते - चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।

त्योहारों की परम्परा में, जो मज़हब को लाये,
दंगों के शोलों में, जम कर घासलेट छिड़काये,
जब भाषण आग उगलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब जूते-चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।

कूड़ा-कचरा बीन-बीन जो, रोजी कमा रहे हैं,
पढ़ने-लिखने की आयु में, जीवन गँवा रहे हैं,
जब भोले बचपन ढलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब जूते - चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।

दर्द-दर्द है जिसको होता, वो ही उसको जाने,
जिसको कभी नही होता, वो क्या उसको पहचाने,
जब सर्प बाँह में पलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब जूते - चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।

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